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कविता

खिड़कियाँ आमने सामने

अशोक कुमार


जब में आत्म बल की बात करता हूँ
तो वे मुझे जिम ले जाते हैं
जब में सुंदरता की बात करता हूँ
तो वे मेक अप का सामान जुटा देते हैं
जब में आरामदेह जीने की बात करता हूँ
तो वे मेरे सामने नए नए फैशन ले आते हैं
जब में कहता हूँ कि मैं उड़ना चाहता हूँ -
खुले आकाश में, स्वछंद
तो वे मुझसे एंबिशन/एस्पिरशंस की बात करते हैं
जब मैं संपूर्ण मानवीयता की बात करता हूँ
तो वे मुझे इंटरनेट के दो चार नए ऐप्स थमा देते हैं
या तो वे मुझे और में उन्हें समझ नहीं पा रहे हैं
या शायद वे अपनी बाज़ारू मजबूरियों में फँसे-जकड़े हुए हैं !
या शायद जैसा कि वे कहते हैं -
मैं अपने आप को इंडिविजुअल की बजाए
सृष्टि का हिस्सा मानता हुआ हीनता का शिकार हूँ !

और शायद इसीलिए - वे मुझ पर और मैं उन पर हँसते हैं !
वे - तंज़ में
मैं - उनके मुझको न समझ पाने पर !

तो क्या हम दोनों ही
अपने अपने घरों की
जैसे एक दुसरे के सामने खुलने वाली खिड़कियों को
बंद रख कर बात कर रहे हैं ?!


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